‘द सॉन्ग ऑफ स्कॉर्पियंस’ चर्चित अभिनेता इरफान की आखिरी फिल्म है, जो उनके गुजरने बाद सिनेमाघरों में रिलीज हुई है. अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त फिल्म निर्देशक और लेखक अनूप सिंह इससे पहले उनके साथ ‘किस्सा’ फिल्म बना चुके थे, जिसकी काफी चर्चा भी हुई. अपने मित्र और अभिनेता को केंद्र में रखते हुए अनूप सिंह ने पिछले साल ‘इरफान: डॉयलाग्स विद द विंड’ किताब भी लिखी है जो स्मृतियों के सहारे लिखा एक शोक गीत है. हालांकि, यह फिल्म वर्ष 2017 में ही लोकार्नो फिल्म समारोह में दिखाई जा चुकी है.
‘द सॉन्ग ऑफ स्कॉर्पियंस’ के सहारे इरफान की अदाकारी को उनके प्रशंसक एक बार फिर से याद कर रहे हैं. प्रसंगवश, 29 अप्रैल को इरफान की तीसरी पुण्यतिथि थी. सिनेमा निर्देशक का माध्यम है, जिसे वह बिंबों और ध्वनि के सहारे दर्शकों के लिए प्रस्तुत करता है, पर एक दर्शक अभिनय, गीत-संगीत, परिवेश आदि के साथ समग्रता में इसे ग्रहण करता है. सिनेमा का सौंदर्य भी इसी समग्रता में ही निहित है.
इस फिल्म की कहानी एक दंतकथा के सहारे बुनी गई है, जिसके केंद्र में बिच्छुओं के डंक को अपने गीत के सहारे दूर करने वाली दादी जुबैदा (वहीदा रहमान) और उसकी खूबसूरत पोती नूरन (गोलशिफतेह फरहानी) है. उनके जीवन में गीत है, वहीं रेगिस्तान में ऊंटों का व्यापारी आदम (इरफान) के जीवन में न सुर है, न संगीत! आदम की नजर नूरन पर टिकी है. वह किसी भी सूरत में उसे पाना चाहता है.
नूरन के मन में भी आदम के प्रति एक आकर्षण है लेकिन उसे पाने की चाहत आदम को हिंसा की तरफ मोड़ती है. नूरन से जीवन छीन जाता है. संगीत छूट जाता है. क्या आदम को नूरन मिलती है? फिल्म ‘प्रेम की पीर’ को सूफियाने ढंग से, धोरों के बीच गीत के सहारे आगे ले जाती है. इसकी भाव-भूमि हालांकि सामंती नहीं, हमारा आधुनिक समाज है. यहां हिंसा है, छल-प्रपंच है. आधुनिक समय में भी स्त्री को लेकर सामंती दृष्टि कायम है.
फिल्म रेगिस्तान (जैसलमेर) में अवस्थित है और भाषा राजस्थानी है. इसी भूमि पर मध्यकाल में सामंती समाज को लक्षित कर भक्ति कवयित्री मीरा ने लिखा था:
लोक-लाज कुल कानि जगत की दई बहाय जस पानी
अपने घर का परदा कर ले मैं अबला बौरानी.
अंत में, नूरन मीरा की तरह घर-परिवार, आदम को छोड़ देती है. अपने ‘स्व’ की तलाश में निकल पड़ती है, गाती है- ‘आओ सखी, आओ मन…’
इस फिल्म में जिस तरह से प्रकाश का संयोजन दिन और रात के दृश्यांकन में किया गया है वह भारतीय सिनेमा में विरल है. यह गम और खुशी, राग और द्वेष और जीवन को दो पाटों को भी खूबसूरती से अभिव्यक्त करता है.
जब आदम अपनी पहली शादी से जन्मी बच्ची को बुआ के पास छोड़ कर घर लौटता है और नूरन को वहां नहीं पाता है, तब कैमरा जिस तरह से ‘विरह से भरे घर-आंगन कोने’ को दिखाता है वहां किसी संवाद की जरूरत नहीं पड़ती. इसी तरह का एक दृश्य नूरन के आंगन का भी है, जब वह जुबैदा को नहीं पाती है. रेगिस्तान की उदासी यहां व्याप्त है. असल में, पूरी फिल्म में रेगिस्तान का अस्तित्व मानव-जीवन से गुंफित है.
पूरी फिल्म के संवाद में एक लय है. दु:ख में भी यहां रागात्मकता है. नूर के ‘गान’ में एक टीस है, जो मानवता को पुकारती हुई प्रतीत होती है. चर्चित संगीतकार मदन गोपाल सिंह का लिखा गाना प्रेम और वेदना को स्वर देने में सफल है. यही बात फिल्म की संगीतकार बीट्राइस थिरिएट के बारे में भी कही जा सकती है. खास कर यह गाना सुनना आह्लादकारी है:
लाडो रानी, म्हारी तो बिजुरिया रे घन घन
तू ही तो री गुड़िया, तू घर बाहर अंगना
तू ही तो बहार बगिया, फूली री बन बन बन.
अनूप सिंह एक प्रयोगधर्मी फिल्मकार हैं जिनकी फिल्में ऋत्विक घटक, मणि कौल, कुमार शहानी की परंपरा से जुड़ती है. उनकी फिल्मों में भूगोल और लैंडस्केप का काफी महत्व है. स्थान विशेष की बोली-वाणी, भेष-भूषा उनकी फिल्मों (एकटी नदिर नाम, किस्सा) के साथ गुंथे चले जाते हैं. पिछले साल इस फिल्म के बारे में बातचीत करते हुए उन्होंने मुझसे कहा था:
“रेगिस्तान में जहर और बाम दोनों होते हैं. हम रेगिस्तान को कैसे देखना चुनते हैं, शायद यह हमें बताता है कि हम खुद को कैसे देखते हैं. हम क्या देखना चुनते हैं- बिच्छू या गीत?”
अनूप सिंह के इस वक्तव्य के सहारे यदि हम आदम के चरित्र को देखे तब स्पष्ट हो पाता है कि क्यों अंत में आदम के प्रति भी दर्शकों के मन में कोई विद्वेष नहीं रह पाता. फिल्म देखते हुए मुझे राजस्थानी प्रेम कथा ढोला-मारू की याद आती रही. यह फिल्म जीवन का गीत है, जो लोक, आख्यान समेटे है. आज जब इरफान हमारे बीच नहीं है, इस फिल्म से बेहतर श्रद्धांजलि नहीं हो सकती.
अरविंद दासपत्रकार, लेखक
लेखक-पत्रकार. ‘मीडिया का मानचित्र’, ‘बेखुदी में खोया शहर: एक पत्रकार के नोट्स’ और ‘हिंदी में समाचार’ किताब प्रकाशित. एफटीआईआई से फिल्म एप्रिसिएशन का कोर्स. जेएनयू से पीएचडी और जर्मनी से पोस्ट-डॉक्टरल शोध.